महंगाई एक ऐसी सदाबहार सुंदरी है, जिसके प्रेमी कभी कम नहीं होते। हर दौर में उसके चाहने वाले बने रहते है। उनके सहारे यह चिरकालिक बला अपनी जीवन-नैया खेती रहती है। महंगाई के बारे में यह अनोखी बात है कि इसका सत्ता से कोई लगाव नहीं होता। यह विपक्ष की हमेशा बेस्ट फ्रेंड रहती है। विपक्ष ही इसे हमेशा अपने साथ चिपकाए रखता है और इसी के सहारे वह अंतत: कुर्सी पाने में सफल भी हो जाता है। मगर जैसे ही उसे कुर्सी मिलती है, वह महंगाई को ठीक उसी तरह भूल जाते है जैसे कभी राजा दुष्यंत अपनी प्रेयसी शकुंतला को भूल गये थे।

सत्ता के लिए महंगाई डायन है, लेकिन विपक्ष के लिए यह एक परम सुंदरी है। यह विपक्ष की जुबान पर हर वक्त महंगाई-महंगाई बनी रहती है। देश की जनता चाहती है कि महंगाई काम हो जाए, मगर विपक्ष भगवान से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! पेट्रोल की कीमतें जिस तरह बढ़ रही है, इसी तरह बढ़ती रहे और खाने-पीने के दाम बिल्कुल भी काम न हो। अगर महंगाई कम हो जायेगी, तो विपक्ष के हाथ से सबसे बड़ा मुद्दा निकल जायेगा, इसलिए वह महंगाई को हवा देता रहता है।

जब विपक्ष सत्ता की मलाई पाता है, उसके प्रवक्ता मीडिया को सफाई देते हुए कहते है कि यह सब तो पिछली सरकार की करतूत है, लेकिन महंगाई नामक इस डायन को हम जरूर भगाकर रहेंगे। आगे-आगे देखिए होता है क्या? और मजे की बात, यह शुरूआत देखते-ही-देखते कब पांच साल में बदल जाती है, उसे पता ही नहीं चलता। महंगाई दूर नहीं होती और इस चक्कर में सत्ता के रथ पर सवार पार्टी का 'द एंड' हो जाता है। विपक्ष को सत्ता की कमान मिल जाती है और वह अकेले में महंगाई नामक इस सुंदरी का आभार व्यक्त करता है। उसके बाद फिर वही चक्र चलता है।

एक दिन सत्ताधारी दल के एक नेता से हमने पूछा, "कल तक तो महंगाई का रोना रोते थे, छाती पीटते थे कि हाय महंगाई-हाय महंगाई, लेकिन अब तो आप सरकार चला रहे है, अब तो इसे कम करके दिखाओ" मेरी बात सुनकर मुस्कराए और बोले, "कम कर देंगे तो हमारा कमीशन कैसे आयेगा?" मैं चकराया और बोला, "कैसा कमीशन? "नेता जी बोले, "अरे भाई, बाजार को सरकार नियंत्रित करती है हम नहीं। उसके इशारे पर सारे खेल होते है। हम चाहे तो महंगाई को रोक सकते है, लेकिन अगर महंगाई को रोक देंगे तो फिर हमारी जो 'घर-पहुँच सेवा' होती है, वह बंद हो जायेगी। हमारे ऐशो-आराम पर तो ताला ही लग जायेगा, इसलिए हम गाँधीजी के तीन बंदरों की तरह हो जाते है, जो न बुरा देखते है, न बुरा सुनते है और न बुरा कहते है। समझ गए कि नहीं समझे?" हमने हँसते हुए कहा, "समझ गए। अच्छे से समझ गए। आप के इस महान चरित्र को पता नहीं जनता क्यों नहीं समझती।" नेताजी हंसकर बोले, उसके सामने कोई चारा भी तो नहीं है। उसे तो बस चित-पट ही करते रहना है। चित आ जाए तो दल राज करेगा। पांच साल बाद पट आ जाए तो दूसरा दल आ जायेगा।

जनता लोकतंत्र की रोटी को पलटती रहती है, ताकि वह जले नहीं।" सोचती है कि अब रोटी पक जायेगी, लेकिन दुर्भाग्य उसका कि रोटी पकती नहीं, बल्कि बुरी तरह जल जाती है।" हम कार के गुबार को देखते हुए महंगाई के बारे में सोचने लगे कि अब पुराने सत्ताखोर जो विपक्ष में आ गए है, महंगाई के साथ इश्क लड़ाएंगे।