वर्धमान नगर में रूपसेन नामक एक राजा राज करता था। एक दिन उसके यहाँ वीरवर नाम का एक राजपूत नौकरी के लिए आया। राजा ने उससे पूछा कि उसे खर्च के लिए क्या चाहिए तो उसने जवाब दिया : हजार तोले सोना। यह सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने पूछा, "तुम्हारे साथ कौन-कौन है?" उसने जवाब दिया, "मेरी स्त्री, पुत्र और पुत्री।" आखिर चार जने इतने धन का क्या करेंगे? यह सोचकर राजा को और भी अचम्भा हुआ, फिर भी उसने उसकी बात मान ली।
उस दिन से वीरवर हर रोज हजार तोले सोना भण्डारी से लेकर अपने घर आता। उसमें से आधा ब्राह्मणों में बाँट देता, बाकी के दो हिस्से करके एक मेहमानों, वैरागियों और संन्यासियों को देता और दूसरे से भोजन बनवाकर पहले गरीबों को खिलाता, उसके बाद जो बचता, उसे स्त्री-बच्चों को खिलाता, फिर खुद खाता। काम यह था कि उसे शाम होते ही ढाल-तलवार लेकर राजा के पलंग की चौकीदारी करने जाना पड़ता। राजा को जब कभी रात में उसकी जरूरत पड़ती, वह हमेशा हाजिर रहता।
एक रात राजा को मरघट की ओर से किसी के रोने की आवाज आई। उसने वीरवर को पुकारा तो वह उसके सामने हाजिर हो गया। राजा ने कहा, "जाओ, पता लगाकर आओ कि इतनी रात गये वहाँ कौन रो रहा है ओर क्यों रो रहा है?"
वीरवर तत्काल वहाँ से चल दिया। मरघट में जाकर देखता क्या है कि सिर से पाँव तक एक स्त्री गहनों से लदी कभी नाचती है, कभी कूदती है और सिर पीट-पीटकर रोती है। लेकिन उसकी आँखों से एक बूँद आँसू की नहीं निकलती। वीरवर ने पूछा, "तुम कौन हो और रोती क्यों हो?"
उसने कहा, "मैं राज-लक्ष्मी हूँ। रोती इसलिए हूँ कि राजा विक्रम के घर में खोटे काम होते है, इसलिए वहाँ दरिद्रता का डेरा पड़ने वाला है। मैं वहाँ से चली जाऊँगी और राजा दु:खी होकर एक महीने में मर जायेगा।"
सुनकर वीरवर ने पूछा, "इससे बचने का कोई उपाय है!"
स्त्री बोली, "हाँ, है। यहाँ से पूरब में एक योजन पर एक देवी का मन्दिर है। अगर तुम उस देवी पर अपने पुत्र का शीश चढ़ा दो तो विपदा टल सकती है। फिर राजा सौ बरस तक बेखटके राज करेगा।"
वीरवर घर आया और अपनी स्त्री को जगाकर सब हाल कहा। स्त्री ने अपने पुत्र को जगाया, पुत्री भी जाग पड़ी। जब बालक ने बात सुनी तो वह खुश होकर बोला, "आप मेरा शीश काटकर जरूर चढ़ा दे। एक तो आपकी आज्ञा, दूसरे स्वामी का काम, तीसरे यह देह देवता पर चढ़े, इससे बढ़कर बात और क्या होगी! आप जल्दी करे।"
वीरवर ने अपनी स्त्री से कहा, "अब तुम बताओ।"
स्त्री बोली, "स्त्री का धर्म पति की सेवा करना है।"
निदान, चारों जने देवी के मन्दिर में पहुँचे। वीरवर ने हाथ जोड़कर कहा, "हे देवी, मैं अपने पुत्र की बलि देता हूँ। मेरे राजा की सौ बरस की उम्र हो।"
इतना कहकर उसने इतने जोर से खांडा मारा कि लड़के का शीश धड़ से अलग हो गया। भाई का यह हाल देखकर बहन ने भी खांडे से अपना सिर अलग कर डाला। पुत्र-पुत्री चले गये तो दु:खी माँ ने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ा और अपनी गर्दन काट दी। वीरवर ने सोचा कि घर में कोई नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूँगा। उसने भी अपना सिर काट डाला। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह वहाँ आया। उसे बड़ा दु:ख हुआ कि उसके लिए चार प्राणियों की जान चली गई। वह सोचने लगा कि ऐसा राज करने से धिक्कार है! यह सोच उसने तलवार उठा ली और जैसे ही अपना सिर काटने को हुआ कि देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया। बोली, "राजन्, मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूँ। तू जो वर माँगेगा, सो दूँगी।"
राजा ने कहा, "देवी, तुम प्रसन्न हो तो इन चारों को जिला दो।"
देवी ने अमृत छिड़ककर उन चारों को फिर से जिला दिया।
इतना कहकर बेताल बोला, "बताओ राजन्, सबसे ज्यादा पुण्य किसका हुआ?"
राजा बोला, "राजा का।"
बेताल ने पूछा, "क्यों?"
राजा ने कहा, "इसलिए कि स्वामी के लिए चाकर का प्राण देना धर्म है; लेकिन चाकर के लिए राजा का राजपाट को छोड़, जान को तिनके के समान समझकर देने को तैयार हो जाना बहुत बड़ी बात है।"
यह सुन बेताल गायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। बेचारा राजा दौड़ा-दौड़ा वहाँ पहुँचा ओर उसे फिर पकड़कर लाया तब बेताल ने चौथी कहानी कही।
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