प्राचीन समय की बात है। धारा नगरी में गंधर्वसेन नाम का एक राजा राज करता था। उसकी चार रानियाँ और छ: पुत्र थे जो कि बड़े ही चतुर और बलवान थे। संयोगवश एक दिन राजा की मृत्यु हो गई। राजा की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र शंख राजगद्दी पर बैठा। उसने कुछ दिन तक राज किया, लेकिन उसके छोटे भाई विक्रम ने उसे मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा। विक्रम ने राज्य का दिनोंदिन विस्तार किया और सारे जम्बूद्वीप पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। एक दिन उसके मन में विचार आया कि उसे घूमकर सैर करनी चाहिए और जिन देशों के नाम उसने केवल सुने है, उन्हें देखना भी चाहिए। सो वह राजगद्दी अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंप, योगी बनकर, देशाटन के लिए निकल पड़ा।
उसी नगर में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। एक दिन देवता ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया और कहा कि इसे जो भी खायेगा, वह अमर हो जायेगा। ब्राह्मण ने वह फल लाकर अपनी पत्नी को दे दिया और देवता के द्वारा कही गई सारी बात भी बता दी। ब्राह्मणी ने कहा, "हम अमर होकर क्या करेंगे? हमेशा भीख ही माँगते रहेंगे क्या? इससे तो मरना ही अच्छा है। तुम इस फल को ले जाकर राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आना।"
यह सुनकर ब्राह्मण फल लेकर राजा भर्तृहरि के पास पहुँचा और सारा हाल कह सुनाया। भर्तृहरि ने फल ले लिया और बदले में ब्राह्मण को एक लाख रूपये देकर विदा कर दिया। भर्तृहरि अपनी एक रानी को बहुत चाहता था। उसने महल में जाकर वह फल उसी को दे दिया। रानी की मित्रता शहर के कोतवाल से थी। उसने वह फल कोतवाल को दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। उसने वह फल वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि यह फल तो केवल राजा को ही खाना चाहिए। वह उसे लेकर राजा भर्तृहरि के पास गई और उन्हें सौंप दिया। भर्तृहरि ने उसे बहुत-सा धन दिया; लेकिन जब उसने फल को अच्छी तरह से देखा तो वह उसे पहचान गया। उसे बड़ा दुःख हुआ, पर उसने किसी से कुछ-भी न कहा। उसने महल में जाकर रानी से पूछा कि तुमने उस फल का क्या किया। रानी ने कहा, "मैंने तो उसे कब-का खा लिया।" राजा ने वह फल निकालकर सामने रख दिया। रानी घबरा गई और उसने सारी बात सच-सच कह सुनाई। भर्तृहरि ने पता लगवाया तो उसे सारी बात ठीक-ठीक मालूम हो गई। उसने सोचा, यह दुनिया तो मोह-माया का जाल है। इसमें अपना कोई नहीं। वह फल लेकर बाहर आया और उसे धुलवाकर स्वयं खा लिया। फिर राजपाट छोड़, योगी का वेश धारण कर, जंगल में तपस्या करने चला गया।
भर्तृहरि के जंगल में चले जाने से विक्रम की राजगद्दी सूनी हो गई। जब राजा इन्द्र को यह समाचार मिला तो उन्होंने एक देव को धारा नगरी की रखवाली के लिए भेज दिया। वह रात-दिन वहीं रहने लगा।
भर्तृहरि के राजपाट छोड़कर जंगल में चले जाने की बात जब विक्रम को मालूम हुई तो वह लौटकर अपने देश वापस आ गया। आधी रात का समय था। जब वह नगर में घुसने लगा तो देव ने उसे रोका। राजा ने कहा, "मैं विक्रम हूँ और यह मेरा राज्य है। तुम रोकने वाले कौन होते हो?"
देव ने कहा, "मुझे राजा इन्द्र ने इस नगर की चौकसी के लिए भेजा है। तुम सच्चे राजा विक्रम हो तो आओ, पहले मुझसे लड़ो।"
दोनों में लड़ाई हुई। राजा ने जरा-सी देर में देव को पछाड़ दिया। तब देव ने कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे हरा दिया। मैं तुम्हें जीवन-दान देता हूँ।"
इसके बाद देव ने कहा, "हे राजन्, एक नगर और एक नक्षत्र में तुम तीन आदमी पैदा हुये थे। तुमने राजा के घर में जन्म लिया, दूसरे ने तेली के और तीसरे ने कुम्हार के। तुम यहाँ राज करते हो और तेली पाताल में। कुम्हार ने योग साधकर तेली को मारकर शमशान में पिशाच बनाकर सिरस के पेड़ से लटका दिया है। अब वह तुम्हें मारने की फिराक में है। तुम उससे सावधान रहना।"
इतना कहकर देव चला गया और राजा महल के भीतर आ गया। राजा को वापस आया देख सबको बड़ी खुशी हुई। नगर में आनन्दोत्सव मनाया गया। राजा फिर से राज करने लगा।
एक दिन की बात है कि शान्तिशील नाम का एक योगी राजा के पास दरबार में आया और उसे एक फल देकर चला गया। राजा को आशंका हुई कि देव ने जिस आदमी की बात की थी, कहीं वह यह तो नहीं! यह सोच उसने फल नहीं खाया और भण्डारी को दे दिया। योगी हमेशा की तरह आता और राजा को रोज एक फल दे जाता।
संयोग से एक दिन राजा अपना अस्तबल देखने गया था। योगी वहीं पहुँच गया और फल राजा के हाथ में दे दिया। राजा ने उसे उछाला तो वह हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़ा। उसी समय एक बन्दर ने उसे झपटकर उठा लिया और तोड़ डाला। उसमें से एक लाल (पत्थर जैसा) निकला, जिसकी चमक से सबकी आँखें चौंधिया गई। राजा को बड़ा अचरज हुआ। उसने योगी से पूछा, "आप यह लाल मुझे रोज क्यों दे जाते है?"
योगी ने जवाब दिया, "महाराज! राजा, गुरू, ज्योतिषी, वैद्य और बेटी, इनके घर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।"
राजा ने भण्डारी को बुलाकर पहले के दिए गए सभी फल वापस मँगवाये। तुड़वाने पर सबमें से एक-एक लाल निकला। इतने लाल देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ। उसने जौहरी को बुलवाकर उनका मूल्य पूछा। जौहरी बोला, "महाराज, ये लाल इतने कीमती है कि इनका मोल करोड़ों रूपयों में भी नहीं आँका जा सकता। एक-एक लाल एक-एक राज्य के बराबर मालूम होता है।"
यह सुनकर राजा योगी का हाथ पकड़कर राजगद्दी पर ले गया और इतने बेशकीमती लाल देने का कारण पूछा। योगी ने कहा, "महाराज, बात यह है कि गोदावरी नदी के किनारे मसान में मैं एक मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ। उसके सिद्ध हो जाने पर मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायेगा। यदि तुम एक रात मेरे साथ रहोगे तो यह मंत्र अवश्य ही सिद्ध हो जायेगा। एक दिन, रात को हथियार बाँधकर तुम अकेले मेरे पास आ जाना।"
राजा ने कहा, "ठीक है।" इसके उपरान्त योगी दिन और समय बताकर अपने मठ में चला गया। वह दिन आने पर राजा अकेला वहाँ पहुँचा। योगी ने उसे अपने पास बैठा लिया। थोड़ी देर बैठकर राजा ने पूछा, "हे योगीराज, मेरे लिए क्या आज्ञा है?"
योगी ने कहा, "हे राजन्, यहाँ से दक्षिण दिशा में दो कोस की दूरी पर मसान में एक सिरस के पेड़ पर एक मुर्दा लटका है। उसे मेरे पास ले आओ, तब तक मैं यहाँ पूजा करता हूँ।"
यह सुनकर राजा वहाँ से चल दिया। बड़ी भयंकर रात थी। चारों ओर अँधेरा फैला था। पानी बरस रहा था। भूत-प्रेत शोर मचा रहे थे। साँप आ-आकर पैरों में लिपटते थे, लेकिन राजा हिम्मत जुटाते हुए आगे बढ़ता गया। जब वह मसान में पहुँचा तो देखता क्या है कि शेर दहाड़ रहे है, हाथी चिंघाड़ रहे है, भूत-प्रेत आदमियों को मार रहे है। राजा बेधड़क चलता गया और सिरस के पेड़ के पास जा पहुँचा। पेड़ जड़ से फुनगी तक आग से दहक रहा था। राजा ने सोचा, हो-न-हो, यह वही है, जिसकी बात योगी ने बताई थी। पेड़ पर रस्सी से बँधा मुर्दा लटक रहा था। राजा पेड़ पर चढ़ गया और तलवार से रस्सी काट दी। मुर्दा नीचे गिर पड़ा और दहाड़ मार-मार कर रोने लगा।
राजा ने नीचे आकर पूछा, "तू कौन है?"
राजा का इतना कहना था कि वह मुर्दा खिलखिकर हँस पड़ा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। तभी वह मुर्दा फिर से पेड़ पर जा लटका। राजा फिर चढ़कर ऊपर गया और रस्सी काट, मुर्दे को बगल में दबाकर, नीचे आया। बोला, "बता, तू कौन है?"
मुर्दा थोड़ी देर तक चुप रहा। राजा ने उसे एक चादर में बाँधा और योगी के पास ले चला। रास्ते में वह मुर्दा बोला, "मैं बेताल हूँ। तू कौन है और मुझे कहाँ ले जा रहा है?"
राजा ने कहा, "मेरा नाम विक्रम है। मैं धारा नगरी का राजा हूँ। मैं तुझे योगी के पास ले जा रहा हूँ।" बेताल बोला, "मैं एक शर्त पर चलूँगा। अगर तू रास्ते में बोलेगा तो मैं लौटकर पेड़ पर जा लटकूँगा।"
राजा ने उसकी बात मान ली। फिर बेताल बोला, "पण्डित, चतुर और ज्ञानी, इनके दिन अच्छी-अच्छी बातों में बीतते है, जबकि मूर्खों के दिन कलह और नींद में। अच्छा होगा कि हमारी राह भली बातों की चर्चा में बीत जाये। मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। ले, सुन।"
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