कलकत्ते की एक तंग, अँधेरी और गंदी गली के अन्दर पुराने और छोटे से मकान के नीचे वाली कोठरी में एक औरत को फटे-पुराने आसन पर बैठे हुए परमात्मा के ध्यान में निमग्न देखा जा सकता है। इस मकान में यद्यपि इसी की तरह और भी कई गरीब किरायेदार रहते है और उनकी बातचीत तथा आपस में झगड़े, तकरार के कारण इस समय मकान में कोलाहल-सा हो रहा है लेकिन उस औरत का चित्त किसी भी तरह हिलता हुआ दिखाई नहीं देता और वह आँखें बन्द किए माला जपती अपने ध्यान में लगी हुई है और दूसरी ओर उस कोठरी का दरवाजा अधखुला-सा दिखाई दे रहा है।

जब हम उसके सामान की तरफ ध्यान देते है तब उस औरत की गरीबी और लाचारी का अंदाजा सहज ही मिल जाता है। एक कोने में फटे-पुराने कपड़े की छोटी अधखुली-सी गठरी, दूसरे कोने में पानी की एक ठिलिया और उसके पास ही छोटा-सा पीतल का गिलास पड़ा है। ऊपर की तरफ एक किल्ली के सहारे काली पेंदी की हाँडी टंगी हुई है जिससे मालूम होता था कि यही हाँडी नित्य चूल्हे पर चढ़ा करती है। पानी वाले घड़े के दाहिनी तरफ चूल्हा और उसके सहारे छोटी-छोटी दो रिकाबियाँ रखी है, वे भी साबुत नहीं है। बाईं तरफ, जहाँ औरत बैठी है मिट्टी का छोटा-सा चौकूठा चबूतरा बना है जिस पर तुलसी जी का एक पेड़ है जिसके सामने वह औरत बैठी हुई इस कंगाली की अवस्था में भी बेफिक्री के साथ उपासना कर रही है और उसके पास ही एक चक्की भी गड़ी हुई है।

इतना होने पर भी उस कोठरी में किसी भी तरह की गंदगी या मैलापन नहीं है। गोबर से लीपकर तमाम जमीन साफ और सुथरी बनाई गई है।

स्त्री का जप पूरा हुआ और वह तुलसी जी को प्रणाम कर हाथ की माला रखना ही चाहती थी कि कोठरी का दरवाजा खुला और एक आठ या नौ वर्ष का बालक अन्दर आता हुआ दिखाई दिया।

बालक – माँ! तू पूजा कर चुकी?

स्त्री – हाँ बेटा कर चुकी।

बालक – बाहर हरि खड़ा है। कहता है, पाठशाला में जाने का समय हो गया। मुझे भूख लगी है; बिना खाए मैं पाठशाला में कैसे जाऊँ?

स्त्री – लम्बी साँस लेकर और माला रखकर, बेटा आज तो कुछ खाने को नहीं है। मैं दो-तीन जगह गई थी। कहीं से गेहूँ भी नहीं मिला जो पीसकर दे आती और मजूरी के दो पैसे लेकर तेरे खाने का इंतजाम करती। नवीन की माँ ने गेहूँ देने के लिए दस बजे बुलाया था सो अब मैं जाती हूँ।

बालक – तो मैं पाठशाला न जाऊँगा। मुझे बड़ी भूख लगी है। तू तो दिन-रात पूजा ही किया करती है, खाने को तो लाती नहीं।

स्त्री – बेटा क्या करूँ! तेरे ही लिए तो दिन-रात पूजा किया करती हूँ। ठाकुरजी से तेरे खाने के लिए माँगती हूँ।

बालक – क्या तेरे माँगने से ठाकुरजी खाने को दे देंगे?

स्त्री – क्यों न देंगे? तमाम दुनिया को देते है, तो क्या मुझ को न देंगे?

बालक – तो देते क्यों नहीं? मुझे बता ठाकुरजी कहाँ है। मैं भी उनसे माँगूँ।

स्त्री – डबडबाई आँखों से, ठाकुरजी बड़ी दूर रहते है। इसलिए मेरी आवाज अभी तक उन्होंने नहीं सुनी।

बालक – तो दूसरों की आवाज कैसे सुनते है, जिन्हें वह खाने को देते है?

स्त्री – कुछ सोचकर, रोज-रोज के पुकारने से सुन ही लेते है और जब सुन लेते है तो सब कुछ देते है।

बालक – क्या हलुआ, जलेबी, लड्डू, पेड़ा सब कुछ देते है?

स्त्री – हाँ बेटा, सब कुछ देते है। इतना कहकर स्त्री ने पूजा समाप्त की और लड़के को गोद में लेकर आँचल से उसका मुँह पोंछने लगी लेकिन लड़के ने पुनः उससे पूछना शुरू किया।

बालक – हाँ माँ, तो तू ठाकुरजी का ठिकाना तो बता दे।

स्त्री – बेटा! ठाकुरजी बैकुंठ में रहते है। वह सब राजाओं के राजा है। उनका ठिकाना क्या?

बालक – बैकुंठ कैसा है?

स्त्री – बैकुंठ बड़ा भारी मकान है। चारों तरफ हीरा-पन्ना, जवाहरात जड़े है। वहाँ बड़ा आनन्द रहता है।

बालक – हमेलटीन कम्पनी की दूकान से भी ज्यादा सजा हुआ है? वहाँ मैं नवीन भैया के साथ गया था। खूब देखा, मगर चपरासी ने भीतर जाने नहीं दिया। कान पकड़ के निकाल दिया।

स्त्री – बेटा, मैं क्या जानूं हमेलटीन कौन है और उसकी दूकान कहाँ है? पर ठाकुरजी के बराबर दुनिया में किसी का मकान न होगा।

बालक – ठाकुरजी का नाम 'ठाकुरजी' ही है या कोई और भी है? जैसे मेरा नाम गोपाल भी है, लल्लो भी है।

स्त्री – हाँ बेटा, तुम्हारे तो दो ही नाम है, लेकिन उनके हजारों नाम है।

बालक – उनका सबसे बड़ा नाम क्या है?

स्त्री – लक्ष्मीनाथ। अच्छा बेटा, अब तू जरा यहाँ बैठ, मैं नवीन की माँ के पास से जा के पीसने के लिए गेहूँ ले आऊँ, तब तेरे खाने-पीने का भी बंदोबस्त करूँ। आज तू पाठशाला मत जा, कल जाइओ।

बालक – अच्छा माँ, तू जा, मैं यहाँ बैठा-बैठा लिखूँगा-पढ़ूँगा। मगर मुझे पानी पिलाती जा, कुछ तो पेट भर जायेगा।

स्त्री की आँखें अच्छी तरह डबडबा आई, लेकिन उसने जल्दी से आँखें पोंछ डाली जिससे गोपाल को मालूम न हो और पानी पिलाकर घर के बाहर निकल गई।

संध्या होने में अभी दो घंटे की देर है। कलकत्ते के बाजारों की रौनक पल-पल में बढ़ती जाती है और बाजारों को छोड़कर हम अपने पाठकों को उस बाजार में ले चलते है जिसकी दोनों मंजिलें सैर-तमाशे के शौकीनों के दिल में ठंढक देने और मनचलों की झुकी हुई गर्दने ऊपर की तरफ उठा देने वाली है। इसी बाजार में हम एक दोहरे टपवाली (लैंडो) फिटिन, जिसके आगे बैलों की जोड़ी जुती हुई है, धीरे-धीरे जाते देख सकते है।

इस गाड़ी में एक अधेड़ उम्र का रईस बैठा हुआ है और उसके सामने की तरफ दो आदमी (जो उसके आश्रित होंगे) भी बैठे हुए बीच-बीच में कुछ-कुछ बातें करते जा रहे है। रईस की निगाह दोनों तरफ की दूकानों और कोठों पर पड़कर उसके दिल में तरह-तरह के भाव पैदा करती जा रही थी। अकस्मात् उस रईस की निगाह एक बालक के ऊपर जा पड़ी, जो सड़क के किनारे पर रखे हुए एक लेटर बॉक्स के अन्दर चिठ्ठी डालने का ढोंग कर रहा था, लेकिन लेटर बॉक्स के मुँह तक हाथ न जाने के कारण वह बहुत ही दु:खी होकर तरह-तरह की तरकीबें कर रहा था। धीरे-धीरे यह फिटिन भी उसके पास तक जा पहुँची और उस लड़के की सूरत-शक्ल तथा उस समय की अवस्था पर रईस को बड़ी दया आई। उसने समझा कि यह गरीब लड़का, जिसके बदन पर साबुत कपड़ा तक नहीं है, शायद किसी दूकानदार का शागिर्द या नौकर है और उसी ने इस बेचारे को इसकी सामर्थ्य से बाहर काम करने की आज्ञा दी है और यह बेचारा डर के मारे अपना काम पूरा किए बिना यहाँ से जाना नहीं चाहता। रईस ने अपने एक मुसाहब को जो उसके सामने की तरफ बैठा हुआ था, गाड़ी से नीचे उतरकर उस लड़के की कठिनाई को दूर करने का इशारा किया। गाड़ी खड़ी की गई और वह मुसाहब नीचे उतरकर लड़के के पास गया। बोला, "ला तेरी चिठ्ठी मैं इस बम्बे में डाल दूँ। इसके जवाब में लड़के ने सलाम करके चिठ्ठी उसके हाथ में दे दी। मुसाहब की निगाह जब लिफाफे पर पड़ी तो चौंक पड़ा और वह लिफाफा रईस के पास नाम दिखाने के लिए ले आया। लड़के को यह बात कुछ बुरी मालूम हुई क्योंकि उसे अपनी चिठ्ठी के छिन जाने का भय था। इसलिए वह भी उस मुसाहब के पीछे-पीछे गाड़ी के पास तक चला आया और रोनी सूरत से उस रईस के मुँह की तरफ देखने लगा। उसकी इस अवस्था पर रईस का दिल और भी हिल गया। उसने लिफाफे पर एक नजर डालने के बाद उस लड़के से कहा, डरो मत, हम तुम्हारी चिठ्ठी ले न लेंगे। इस पर पता ठीक-ठीक नहीं लिखा है, इसलिए यह आदमी मुझे दिखाने के लिए ले आया है। कहो तो मैं इस पर अंग्रेजी में पता लिख दूँ, ताकि चिठ्ठी जल्द ठाकुरजी के पास पहुँच जाये। लड़के ने खुश होकर कहा, हाँ, लिख दीजिए।

उस चिठ्ठी पर लिखा हुआ था – श्री ठाकुरजी महाराज लक्ष्मीनाथ के पास चिठ्ठी पहुँचे।

स्थान – बैकुंठ।

रईस ने अंग्रेजी में उस पर यह लिख दिया – M. PRATAP NARAIN HARRISON ROAD, Calcutta,

लड़का अंग्रेजी नहीं जानता था इसलिए वह इस बात को कुछ समझ न सका। इसके बाद रईस ने उस लड़के से, जो बातचीत करने में बहुत तेज और ढीठ भी था, पूछा, तुम्हारा मकान कहाँ पर है?

लड़का – हाथ का इशारा करके, उस तरफ बड़ी दूर है।

रईस – प्यार से उसका हाथ पकड़ के, आओ हमारी गाड़ी पर बैठ जाओ। हम तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुँचा देंगे।

लड़का – गाड़ी पर सवार हो गया। रईस ने उसे अपने बगल में बैठा लिया। गाड़ी पुनः धीरे-धीरे रवाना हुई और रईस तथा उस लड़के में यूँ बातचीत होने लगी।

रईस – यह चिठ्ठी तुमने अपने हाथ से लिखी है?

लड़का – हाँ।

रईस – किसके कहने से लिखी है?

लड़का – अपनी खुशी से।

रईस – तुमने कैसे जाना कि ठाकुरजी किसी का नाम है?

लड़का – मेरी माँ रोज उनकी पूजा किया करती है। उसी से मैंने सब कुछ पूछा था।

रईस – तुम्हारी माँ ने तुम्हें धोखा दिया है।

लड़का – मेरी माँ कभी झूठ नहीं बोलती। सब कोई कहते है कि लल्लो की माँ झूठ नहीं बोलती।

रईस – तो क्या यह चिठ्ठी तुमने अपनी माँ से छिपाकर लिखी है?

लड़का – हाँ। रोनी सूरत से, लेकिन मेरी माँ सुनेगी तो मुझे मारेगी...

रईस – लड़के की पीठ पर हाथ फेर के, नहीं-नहीं, तुम डरो मत। हम तुम्हारी माँ से यह हाल न कहेंगे। हमारा कोई आदमी भी ऐसा न करेगा। अच्छा यह तो बताओ कि चिठ्ठी में तुमने क्या लिखा है?

इसका जवाब लड़के ने कुछ भी न दिया। रईस ने दो-तीन दफे यही बात पूछी लेकिन कुछ जवाब न पाया। आखिर यह सोचकर चुप हो रहा कि जब वह चिठ्ठी मेरे यहाँ पहुँचेगी, क्योंकि मैंने उस पर अपना पता लिख दिया है, जो कुछ उसमें लिखा होगा मालूम हो जायेगा।

इतने ही में लड़का चौंक पड़ा और गद्दी पर से कुछ उठकर बोला, वह मेरी गली आ गई, मुझे उतार दो।

रईस की आज्ञानुसार गाड़ी खड़ी की गई और वह लड़का उतरकर अपने उसी मकान में चला गया। लेकिन रईस का इशारा पाकर उसका एक आदमी लड़के के पीछे-पीछे गया और उसका मकान अच्छी तरह देख-भाल आया। इसके बाद गाड़ी वहाँ से रवाना होकर तेजी के साथ एक तरफ को चली गई।

रईस महाराज कुमार प्रतापनारायण ऊँचे दर्जे का अमीर और जमींदार था। वह हर तरह की खुशी का सामान अपने चारों तरफ देखता था और बिना औलाद के रहकर भी वह दिन-रात अपने को प्रसन्न रखता था। मगर आज मालूम होता है कि उसकी तमाम बनावटी खुशियों का खून हो गया है और उसके अन्दर किसी सच्ची खुशी का दरिया जोश मार रहा है, जिसके सबब से उसकी बड़ी-बड़ी आँखें प्रेम के आँसुओं का सोता बहा रही है। गोपाल लड़के के हाथ की लिखी हुई कल वाली चिठ्ठी, जिस पर उसने अपना पता लिखकर डाक के बम्बे में छुड़वा दिया था, उसके हाथ में ही थी और वह अपने कमरे में अकेला बैठा हुआ उसे बार-बार पढ़कर भी अपने दिल को संतोष नहीं दे सकता था। उस चिट्ठी का यह मजमून था –

'श्रीठाकुरजी महाराज! लक्ष्मीनाथ!'

मैंने अपनी माँ से सुना है कि तमाम दुनिया को तुम खाने के लिए देते हो। जो कोई जो कुछ माँगता है, तुम वही देते हो, तुम्हारे भण्डार में सब कुछ भरा रहता है तो फिर मुझे क्यों नहीं देते? दयानिधान! आज मैं दिन भर का भूखा हूँ। मेरी माँ न मालूम कितने दिन की भूखी है। मेरे घर का रोज ही यही हाल रहता है। कब तक मैं लिखा करूँगा? कृपा कर मेरे लिए दो सेर लड्डू का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे मैं, मेरी माँ और मेरे साथ खेलने वाले लड़के भी रोज खा लिया करे। मैंने आज तक कभी नहीं खाया, मैं उसका स्वाद नहीं जानता...।'

पुनः पढ़कर रईस ने अपने कलेजे पर हाथ रखा और लम्बी साँस लेकर कहा, हा! व्यर्थ ही इतने दिन भूल-भुलैये में घूमते हुए नष्ट किये। हाँ! एक दिन भी ऐसा सरल विश्वास भगवान् पर न हुआ। आज मालूम हुआ कि मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए? हे ईश्वर! तू धन्य है, निःसंदेह तुझ पर जो भरोसा और विश्वास रखता है, उसी का बेड़ा पार होता है। अच्छा, पतितपावन! अब मैं भी तेरे दरवाजे की खाक छानूँगा और देखूँगा कि तेरी लम्बी भुजा के सहारे मुझ अधर्म का क्यों उद्धार नहीं होता है?

इतने ही में कमरे का दरवाजा खुला और विपिनविहारी बाबू वकील हाईकोर्ट की सूरत दिखाई दी, जो बड़े ही नेक, भोले-भाले तबीअत के आदमी थे और जिन्हें महाराज कुमार प्रतापनारायण ने एक वसीयतनामा लिखने के लिए बुलाया था।

एक ओर गोपाल अपनी माँ के पास बैठा हुआ मीठी-मीठी बातें कर रहा है। वह डरता-डरता कह रहा है – माँ, मैंने ठाकुरजी को चिठ्ठी लिखी है। वह आज जरूर पहुँच गई होगी। तू कहती थी कि वह पल-भर में तमाम दुनिया की खबर ले लेते है। अगर ऐसा है तो बस अब थोड़ी ही देर में मेरे पास भी लड्डू की हाँडी पहुँचती होगी। आज तू मेरे खाने की फिक्र न कर और दूसरी ओर उसकी माँ अपनी आँखों से आँसुओं की धारा बहा रही है। इतने ही में दरवाजे के बाहर से किसी ने गोपाल कहकर पुकारा, जिसे सुनकर गोपाल दौड़ता हुआ घर के बाहर चला गया। थोड़ी ही देर के बाद जब लौटकर अपनी माँ के पास आया तो उसके एक हाथ में लड्डू से भरी हुई एक हाँडी थी और दूसरे हाथ में एक चिठ्ठी। गोपाल ने खुशी-खुशी अपनी माँ से कहा – देख माँ, मैं कहता था न...कि ठाकुरजी का आदमी लड्डू लेकर आता होगा। देख, कैसा बढ़िया लड्डू है, अहाहा।

एक चिठ्ठी भी ठाकुरजी ने भेजी है। देख यह चिठ्ठी है –

गोपाल की बात सुनकर उसकी माँ भौचक-सी गई और वह ताज्जुब भरी निगाहों से गोपाल का मुँह देखने लगी। दिल के अन्दर से उठे हुए जोश ने उसका गला भर दिया था और वह कुछ बोल नहीं सकती थी। जब गोपाल ने चिठ्ठी उसके हाथ में दी, तब वह उसे खोलकर पढ़ने लगी। जिसका मतलब यह था –

ठाकुरजी ने दो सेर लड्डू रोज तुम्हारे पास भेजने की आज्ञा दी है सो आज से बराबर तुम्हारे पास पहुँचा करेगा। ठाकुरजी ने तुम्हारे लिए और भी बहुत कुछ प्रबन्ध किया है जिसका हाल कुछ दिन बाद मालूम होगा।

गोपाल की माँ को बड़ा ही आश्चर्य हुआ! वह ताज्जुब-भरी निगाहों से कभी गोपाल का मुँह देखती और कभी लड्डू तथा चिठ्ठी की तरफ ध्यान देती। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ और क्यों हुआ? लेकिन गोपाल का इन सब सोच-विचारों से क्या सम्बन्ध था। वह उसी समय थोड़ा-सा लड्डू लेकर घर के बाहर निकल गया और अपने हमजोली तथा साथ खेलने वाले लड़कों को खुशी से बाँटकर घर चला आया। इसके बाद खुद भी लड्डू खाए और अपनी माँ को भी जिद करके खिलाया।

पंद्रह दिन तक नित्य एक आदमी आकर गोपाल के घर पर लड्डू दे जाया करता था और उसकी माँ तरह-तरह के सोच-विचारों में अपना समय बिताया करती।

इसके बाद सोलहवें दिन जब महाराज कुमार प्रतापनारायण की चिठ्ठी एक वसीयतनामे के साथ सरकारी वकील की मार्फत उसके पास पहुँची, तब उसे मालूम हुआ कि गोपाल के सच्चे प्रेम, विश्वास और भोलेपन ने उसकी हुर्मत और औकात तथा जिन्दगी के ढंग का कैसा काया पलट कर डाला है और उसके घर पर लड्डू पहुँचाने वाले महाराज कुमार प्रतापनारायण के दिल पर उसका कितना बड़ा असर पड़ा कि उसने अपनी तमाम जायदाद का मालिक गोपाल को बनाकर इसलिए ब्रज-यात्रा की कि उसी भक्तवत्सल, पतितपावन बैकुंठनाथ के प्रेम में अपना जीवन समाप्त करके सच्चे सुख का लाभ प्राप्त कर सके।