यह एक ऐसी युक्ति है जो कि विद्युत ऊर्जा (Electrical Energy) को यांत्रिक ऊर्जा (Mechanical Energy) में परिवर्तित करती है।

सिद्धान्त (Principle)
जब किसी कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में रखकर, उसमें धारा प्रवाहित की जाती है तो उस पर एक बलयुग्म कार्य करता है जो कुण्डली को उसके अक्ष पर घुमाने का प्रयास करता है। इस बलयुग्म की दिशा फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार ज्ञात की जाती है।
संरचना (Structure)
मुख्य रूप से यह चार भागों में विभक्त है जो कि इस प्रकार है -
• आर्मेचर (Armature)
यह ताँबे के पतले, पृथक्कृत तार के अनेक फेरों की बनी एक आयताकार कुण्डली है जो अपने अक्ष पर स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है। इसे नर्म लोहे के क्रोड पर लपेट कर बनाया जाता है।
• क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet)
यह एक शक्तिशाली स्थायी चुम्बक है जो दो ध्रुव खण्डों N और S में विभक्त होता है। इसका कार्य चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करना है जिसमें कुण्डली घूमती है।
• विभक्त वलय (Split Rings)
यह पीतल का बना, दो अर्द्धवृत्ताकार खण्डों में विभक्त एक वलय का भाग है। आर्मेचर के दोनों सिरे इन्हीं एक-एक अर्द्ध वलयों से जुड़े होते है।
• ब्रुश (Brushes)
ये ग्रेफाइट (कार्बन) के बने दो गुटके है जो विभक्त वलय को स्पर्श करते है। ब्रुशों का सम्बन्ध संयोजक तारों द्वारा किसी बैटरी अथवा दिष्ट धारा मेन्स से होता है जिससे आर्मेचर में विद्युत धारा प्रवाहित होती है।
कार्यविधि (Working Procedure)
माना आर्मेचर ABCD क्षैतिज स्थिति में है। जब कुंजी को दबाया जाता है तब धारा, ब्रुश X से प्रवेश करके ब्रुश Y से होती हुई वापस आ जाती है। फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार, भुजा BC और AD पर कोई बल कार्य नहीं कर रहा है क्योंकि दोनों भुजाएँ चुम्बकीय क्षेत्र के समान्तर है, जबकि भुजा AB पर नीचे की ओर और भुजा CD पर ऊपर की ओर एक बल कार्य कर रहा है। यह बल आर्मेचर को वामावर्त (Anticlockwise) दिशा में घुमाता है। जब कुण्डली आधे चक्कर को पूरा कर लेती है, तब विभक्त वलय अपना स्थान बदल लेते है। अब भुजा CD पर नीचे की ओर तथा भुजा AB पर ऊपर की ओर एक बल कार्य करता है। इससे पता चलता है कि कुण्डली सदैव वामावर्त (Anticlockwise) दिशा में घूमती रहती है।
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